पुरखे चढ़े रहते हैं कंधों पर बेताल की तरह सदियों बाद भी, रीति रिवाज़ों और परम्पराओं के नाम पर, पर हम ढोते हैं उन्हें जन्म से लेकर मृत्यु तक, पूरी उम्र बिना सवाल के कोई दोहराते हैं वही जो पीढ़ियाँ
वो जीता है काग़ज़ों में कई ज़िन्दगी हर रोज़, मगज़ से निकल पन्नों तक आते कई बिम्ब उलझ जाते हैं सुलझाता है उन्हें अँधेरे में बैठ, शब्दों से बुनकर गढ़ता है नए चित्र, टांगता है ख़यालों को सृजन की ऊँचाई