गाने का गुण है पंछी में जब भी वह दाने चुगता है वह तब ही गाने गाता है चाहे हो डंडी नुकीली चाहे हो फूलों की बगिया कैसी भी हों राहें पथरीली गीतों की तान सुनाता है ना जाने क्या
जिस आँगन में टहली हूँ मैं शिरीष एक पल्लवित हुआ है, हरा भरा है वृक्ष वहाँ पर नव कलियों से भरा हुआ है, सिंदूरी फूलों से लदकर टहनी टहनी गमक रही है, छटा निराली मन को भाए धूप मद भरी लटक
पर्वतों की डगर नापती रही नदी सारे अभिशाप सहती रही नदी कल कल का राग लहरों का स्वर गीत मछुआरों के गाती रही नदी, हिमगिरि के द्वार ठहरी नहीं कभी बहने का आश्वासन देती रही नदी, मैदानी आँगन में कूदती
ये मंसूरी की पहाड़ी सर्प सी लहरा रही है दिखती हैं सीढ़ियों सी घूमती ही जा रहीं हैं खाईयाँ हैं बहुत गहरी कांपती है प्रतिध्वनि भी झांकती हैं तरु मीनारें दिखती न इक कनी भी वादियाँ पर्वत की देखो गीत
सिंदूरी साँझ लांघ गयी देहरी धूप की मौसम ने खोल दिये जाल महक उठे गन्धों के थाल मतवाली सांझ सिमटी, बाहों में प्रीत की सिंदूरी साँझ लांघ गयी देहरी धूप की, फसलों के वह सुरीले स्वर गीत बने लहलहा कर अलसाई