
Photo by Pascal Heymans
बड़ी “न्यूट्रल” सी ज़मीन थी पहले
कुछ भी नहीं था वहाँ
कुछ होता नहीं था
फिर एक दिन उसी ज़मीन के एक टुकड़े पर,
हिन्दू शमशान भूमि बनी
और कुछ दिनों बाद बिल्कुल बगल में
एक सुन्नी क़ब्रिस्तान
जलती हुई चिताओं और ख़ामोश पड़ी क़ब्रों के बीच
एक ईंट – पत्थर की दीवार थी
और कुछ भी नहीं
अटपटा इस लिए लगा था पहली बार देख के
क्योंकि पहली ही बार ऐसा कुछ देखा था
पर अब रोज़ ही गुज़रना होता है उस रास्ते से मुझे
और मैं देखता तक नहीं हूँ उस तरफ़
और क्यों देखूँ??
कुछ होता नहीं उस ज़मीन पे अब भी
अब भी सब शांत रहता है
जैसा हमेशा रहता था
जब कुछ नहीं था वहाँ पर
बस कभी कभार धुंआ दिखता है उठता हुआ
तो कभी ज़मीन के खोदने की आवाज़ आती है
पर न धुंआ रोकता है खुदती हुई ज़मीन को
और न कुड़ाल उठे धुंए के रास्ते में टांग अड़ाता है
दोनों संग रहकर अपना मुख्तलिफ़ काम करते रहते हैं चैन से
दोनों में से कोई भी ज़मीन या आसमान पर
अपना हक़ जमाने की कोशिश नहीं करता
और ऐसा इस लिए होता है-
क्योंकि ज़मीनों के मज़हब नहीं होते
और मुर्दे चाहे ग़ैर मज़हबी ही सही
लड़ते नहीं है आपस में
सच में अब भी कुछ होता नहीं उस ज़मीन पर
वो ज़मीन अब भी – बड़ी न्यूट्रल सी ही है
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